Saturday, October 28, 2006

यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है

ये सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' जी एक कविता है जिससे मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ और मुझमे कविता और काव्य रस के प्रति अभिरुचि हुई | मैं इस कविता कि बहुत सी पंकियाँ भूल चुका था, लेकिन यहाँ मेरे इसी ब्लॉग पर रोहित चौहान जी के कमेन्ट कि सहायता से मैं इस कविता को पूरा करके पुनः पोस्ट कर रहा हूँ| आशा है 'अज्ञेय' जी कि ये रचना मेरी तरह और भी लोगों को उत्साहित करेगी हिंदी के प्रति

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मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने -
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने!

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है -
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है -
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया -
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने!
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने -
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने.

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Friday, October 27, 2006

कैसे कोई (Kaise Koi)

कैसे कोई प्यार करे,
कब तक किसका इंतज़ार करे 
अब  कौन समझाए कि मानव 
किससे  कैसा व्यवहार करे 

अपनेपन  की  परिभाषा है क्या ?
इस  दिल की अभिलाषा है क्या?
चाहत की चौहद्दी है कहाँ तक?
रिश्तों की सीमा है क्या ?

जितना मैं सुलझाना चाहूँ 
उतना ही उलझा जाता हूँ 
रिश्तों के ताने-बाने में 
मैं कैद स्वयं को पाता हूँ 

दिल एक बेबस बेचारा 
जाए तो आखिर कहाँ जाए 
कोई तो इसको राह दिखाओ 
कोई तो इसको समझाए
 
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Kaise koi pyar kare,
Kab tak kiska intzaar kare.
Ab kaun samjhaye ki manav,
Kis-se kaisa byavhaar kare.

Apnepan ki paribhasha hai kya,
Is dil ki abhilasha hai kya.
Chahat ki chauhaddi hai kahan tak,
Riston ki seema hai kya.

Jitna main suljhana chahoon,
Utna hi uljha jata hoon.
Riston ke tane-bane mein,
Main kaid swaim ko pata hoon.

Dil ek bebas bechara,
Jaye to aakhir kahan jaye.
Koi to isko raah dikhao,
Koi to isko samjhaye.
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Meri pyas.....


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Mere man ko kiski pyas.

Jaane wo kaun jo aakar meri,
Tandra ko jhakjhor jagati hai.
Phir kheench sunahle swapnil tage se,
Mujhe apne desh le jati hai.
Hota vyakal jab uske sanidhya ko,
Koi na hota hai aas-paas.
Mere man ko kiski pyas.

Meri eshna hai dhoondh rahi,
Wo kaun nikat jo nirav hai.
Kiski ujaash hai mere anter mein,
Mere ekant mein kiska rav hai.
Wo naam kaun jise meri rashna,
Satat pukarti hai sayaash.
Mere man ko kiski pyas.

Ab asahya viyog hai tera sumukhi,
Aao, aakar, meri trishna ko tript karo.
Iti karo mere ekant ki,
Meri niravta, apne aalok se deept karo.
Phir kaanon mein swaim kah do,
Mere man ko teri pyas.
Mere man ko teri pyas.
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