Wednesday, August 22, 2007

बिरही मन (Birhee Mann)


इस बिरही मन को समझाऊँ कैसे?



सोचता हूँ आज मन को तेरे आगे खोल दूँ,
अपनी सांसों का सौरभ, तेरी सांसों में घोल दूँ।
तोल दूँ इस तन-सुमन को अपनी बाहों में,
सोचता हूँ, सोच से हीं, खुद को बहलाउँ कैसे?
इस बिरही मन को समझाऊँ कैसे?

आया सु-स्वप्न सा यह विचार सवेरे-सवेरे,
कि कह दूँ जो भी बात है, मन में मेरे।
सुना चुका हूँ, कई बार दर्पन के आगे स्व को,
पर इस प्रनय-निवेदन को तेरे आगे दुहराउँ कैसे?
इस बिरही मन को समझाऊँ कैसे?

माना तेरा प्यार बदले में केवल प्यार मांगता है,
किन्तु पहले यह अर्पन सारा संसार मांगता है।
मोहन बन सकता हूँ, मजनूं या फ़रहाद नहीं,
तुम हो सदा यादों में, पर दुनिया को बिसराऊँ कैसे?
इस बिरही मन को समझाऊँ कैसे?

आज पराधीन नहीं , पर इतना भी स्वाधीन नहीं मैं,
तेरे लिये सबको भूलूँ, ऐसा भी हीन नही मैं।
ग्यात है मुझको ये सब, फिर भी तेरा दीवाना हूँ,
अपने मन की पर-वसता, तुझको मैं बतलाऊँ कैसे?
इस बिरही मन को समझाऊँ कैसे?

Thursday, August 02, 2007

तुम कौन हो? (Tum Kaun Ho)

तुम कौन हो?

जाने कब बैठ गयी तुम,
इस दिल में मेहमान बन।
कभी-कभी खिल आती हो,
मेरे होठों पर मुस्कान बन।
बसी मेरे हर सांस में,
प्रिये, बोलो तो,




तुम कौन हो?

करता हूँ महसूस तुम्हें,
गैरों में, मेरे अपनों में।
बस तुमको हीं पाता हूँ,
बंद या खुली आँखों के सपनों में।
बसी मेरे द्रिश्य पटल पर,
प्रिये, बोलो तो,

तुम कौन हो?

ये मेरे भाव नहीं,
बस तुम्हारी चाहत है।
ये मेरे शब्द नहीं,
बस तुम्हारी आहट है।
बसी मेरी लेखनी में,
प्रिये, बोलो तो,

तुम कौन हो?